शिक्षा की शर्मनाक हकीकत

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को दुनिया की सबसे खराब शिक्षा व्यवस्था विरासत में मिली है। भारत में शिक्षा का प्रभार कम गुणवत्ता वाले मंत्रियों को मिलता रहा है। अर्जुन सिंह जैसे लोग भी इस पद पर रहे हैं जिन्होंने व्यवस्था में सुधार की चिंता तो नहीं की, लेकिन ओबीसी आरक्षण कार्ड खेलने में जरूर लगे रहे। यही कारण है कि एक प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय परीक्षा में भाग लेने वाले भारत के 15 साल के लड़के और लड़कियों को केवल किर्गिस्तान के ऊपर सभी देशों में आखिरी से दूसरा स्थान मिला। हां, सचमुच। विज्ञान और अंकगणित की सामान्य परीक्षा में 2011 में 74 देशों में भारत के बच्चों को 73वां स्थान मिला था। यह परीक्षा पीसा कहलाती है जिसका अर्थ प्रोग्राम फार इंटनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट। संप्रग सरकार ने इस तरह के दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम के कारणों की वजह जानने की जगह पीसा में फिर भाग न लेने का फैसला किया। दुनिया में आखिरी से दूसरा स्थान उन लोगों के लिए भी सदमा था जो अपनी शिक्षा व्यवस्था में जंग लगने की बात जानते हैं। देश के हर जिले में हर साल सात लाख विद्यार्थियों की अच्छी-खासी संख्या का सर्वे हमें शिक्षा के वार्षिक स्तर की रिपोर्ट (एएसईआर) के रूप में मिलता है। इसने बार-बार दिखाया है कि पांचवीं क्लास के आधे से भी कम बच्चे ही दूसरी क्लास के पाठ्यक्रम से कहानी पढ़ सकते हैं या उस स्तर के अंकगणित के सवाल हल कर सकते हैं।

शिक्षकों का प्रदर्शन और भी बड़ी समस्या है। सिर्फ चार फीसद शिक्षकों ने शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) पास की है और उत्तर प्रदेश तथा बिहार के चार में से तीन शिक्षक पांचवीं क्लास स्तर के प्रतिशत निकालने वाले सवाल तक हल नहीं कर पाए। देश के सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा के अधिकार अधिनियम पर हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद हाल के वर्षों में सीखने वाले परिणाम गिरते ही गए हैं। अगर मैं स्मृति ईरानी होता तो इस खराब हालत पर सिर झुका लेता और रोता। खूब रो लेने के बाद मैं सवाल पूछता कि गरीब भारतीय मां-बाप अपने बच्चों को उन सरकारी स्कूलों से निकाल लेने को क्यों बेचैन हैं जो नि:शुल्क पढ़ाते हैं और उन निजी स्कूलों में क्यों भेज रहे हैं जहां उन्हें फीस देनी पड़ती है? हो सकता है, फीस कम हो, लेकिन कड़ी मेहनत से कमाए गए पैसे को उस चीज के लिए खर्च करने में उन्हें बेचैनी होनी चाहिए जो नि:शुल्क उपलब्ध है। कुछ गरीब बच्चे गलत हो सकते हैं, लेकिन पूरा देश गलत नहीं हो सकता। एएसईआर के आंकड़े बताते हैं कि बच्चे चिंताजनक दर पर सरकारी स्कूल छोड़ रहे हैं। स्कूल शिक्षक खुद अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजते हैं।

दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से समस्या 2009 में बनाए गए शिक्षा के अधिकार कानून में है। संप्रग सरकार ने मान लिया था कि समस्या आंकड़ों और स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में है। लेकिन 2009 में 96.5 प्रतिशत बच्चे तो स्कूल में थे ही। आरटीई कानून पढ़ाई जाने वाली चीजों के परिणाम और शिक्षकों की गुणवत्ता पर बिल्कुल मौन है। इसने दूसरी यह गलत बात भी मान ली कि बच्चों की उपलब्धि की समीक्षा का बच्चों पर दबाव पड़ेगा और इस बात ने विद्यार्थियों की परीक्षा को अवैध बना दिया। बच्चों की अच्छाइयों और कमजोरियों के बारे में अभिभावकों की जानकारी के बिना बच्चे अपने आप अगली क्लास में भेजे जाने लगे। परिणाम यह हुआ कि बच्चों के प्रदर्शन के लिए शिक्षकों की कोई जिम्मेदारी नहीं रह गई है।

सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता बेहतर करने की जगह आरटीई ने निजी स्कूलों पर भ्रष्ट इंस्पेक्टर राज डाल दिया है और इससे काफी बड़ी संख्या में स्कूल बंद हो गए हैं। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय को इसमें दखल देना पड़ा और इस पर रोक लगानी पड़ी। सरकारी स्कूल विफल हो रहे हैं, इस बात को मानते हुए आरटीई ने गरीब परिवारों के बच्चों के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण का कोटा निजी स्कूलों पर लाद दिया। अपने आप में यह बुरी बात नहीं है, लेकिन यह इस तरीके से किया जा रहा है कि सरकार ने निजी स्कूलों में दखल देना शुरू कर दिया है। कुछ राज्यों में लॉटरी की जगह राजनेता और नौकरशाह निर्धारित करने लगे हैं कि किस बच्चे को कोटे का लाभ मिलेगा। इसने निजी स्कूलों पर दूसरा ही इंस्पेक्टर राज डाल दिया है।

क्या किया जाना चाहिए? यह आश्वस्त करने वाली बात है कि व्यवस्था में किस तरह सुधार हो, इस बारे में मंत्री स्मृति ईरानी सुझाव मांगते हुए लोगों से संवाद और विचार-विमर्श कर रही हैं। इस संदर्भ में छह ऐसे मजबूत कदम हो सकते हैं जिनके जरिये वे 24 करोड़ स्कूली बच्चों के भविष्य बचा सकती हैं। एक, इस बात को पहचानें कि समस्या पैसे की नहीं, प्रबंधन की है। यह शर्मनाक बात है कि स्कूल में चार में से एक शिक्षक अनुपस्थित रहता है और उपस्थित दो में से एक पढ़ाते हुए नहीं पाए जाते। संप्रग के शिक्षा विशेषज्ञ शिक्षा दर्शन पर बात करने में अच्छे थे, लेकिन शिक्षकों की अनुपस्थिति जैसी वास्तविक समस्या के समाधान के मामूली काम में बुरी तरह विफल रहे। दो, नीति में स्कूल में पढ़ाने से अधिक ज्ञान देने और संख्या से अधिक गुणवत्ता पर जोर देने वाला बदलाव हो। गुजरात के गुणोत्सव कार्यक्रम का अनुसरण हो सकता है जिसमें नियमित रूप से जांचा जाता है कि बच्चे कैसा कर रहे हैं। नियमित राष्ट्रीय परीक्षाओं की शुरुआत हो। राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण (एनएएस) को इस तरह का बनाया जाए कि वह ज्ञान का बैरोमीटर बने। तीन, महान नेता महान संस्थाएं बनाते हैं। वरिष्ठता के आधार पर प्रधानाध्यापकों की नियुक्ति बंद हो। एक मजबूत प्रधानाध्यापक एक कमजोर स्कूल को भी पूरा बदल सकता है अगर वह सिर्फ प्रशासक नहीं, दिशानिर्देश देने वाला नेता हो। फिर वही बात, गुजरात के शिक्षा मॉडल का अनुसरण किया जाए और प्रधानाध्यापकों के चुनाव के लिए प्रधानाध्यापक योग्यता परीक्षा शुरू की जाए। स्कूल का नेतृत्व करने वालों को तैयार करने वाले प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना हो।

चार, पिछले वेतन आयोग के बाद शिक्षकों का वेतन बेहतर हो गया है। अब शिक्षण में बेहतर प्रतिभा आकर्षित करने के लिए प्रोत्साहन भत्ता शुरू किया जाए। तीसरे दर्जे की शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं की जगह भारत के अच्छे विश्वविद्यालयों में प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थाएं बनाई जाएं। पांच, निजी स्कूलों को न तो परेशान करें, न उनके साथ दुधारू गायों की तरह व्यवहार करें। 'लाइसेंस राज' से मुक्ति पाएं। यह उन वास्तविक शिक्षा उद्यमियों को शिक्षा क्षेत्र में प्रवेश करने को प्रोत्साहित करेगा जो सोचते हैं कि उनका काम पढ़ाना है। छह, चिली, सिंगापुर, स्वीडन, ब्राजील और पोलैंड के सबसे अच्छे तरीकों से सीखना चाहिए। इनमें से कुछ देशों के साथ वही समस्या थी जो हमारे साथ है। लेकिन अपनी शिक्षा व्यवस्थाओं में सुधार के लिए बड़ी ऊर्जा का निवेश कर उन्होंने अपनी समस्याओं का समाधान कर लिया है। स्मृति जी, अगर आप अपने पूर्ववर्तियों से भिन्न होना चाहती हैं तो आइआइटी को सताना, मुख्य स्थानों पर आरएसएस के लोगों को नियुक्त करना और संस्कृत तथा वैदिक गणित पढ़ाना बंद करें। 24 करोड़ स्कूली बच्चों के भविष्य को बचाएं और गर्व महसूस करें।

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