सुशासन से भारत में घुलेंगे-मिलेंगे कश्मीरी

हमारा सामना इस असुविधाजनक सत्य से है कि हिंदुत्व व कश्मीरियत सहित हर राष्ट्रवाद काल्पनिक ह

कश्मीर के राजनीतिक दर्जेमें किए बदलाव से कश्मीरियों में गुस्सा, भय, अलगाव और आत्म-सम्मान खोने की भावना है। कई लोगों ने कश्मीरियत को पहुंची चोट को कानूनी और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की है लेकिन, जरूरत राष्ट्रीय पहचान की दार्शनिक समझ की है। खासतौर पर कश्मीरियों और भारतीयों को इस तथ्य को समझना होगा कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पहचानें काल्पनिक हैं। हिंदुत्व और कश्मीरियत दोनों आविष्कृत अवधारणाएं हैं। इससे कुछ रोष शांत करने में मदद मिलेगी।

कश्मीर में आलोचना हो रही है कि कश्मीरियों की सहमति एेसे तो नहीं ली जानी चाहिए थी। हालांकि, लंबी अवधि में यह रोष चला जाएगा यदि कश्मीरियों को भारत साथ रहने लायक लगा। भारत कई पहचानों का संघ है और कुछ लोगों ने पूछा है कि क्या कश्मीरी पहचान को पहुंची चोट, आंध्र के लोगों के गर्व को पहुंची चोट के दुख से भिन्न है, जो कुछ ही साल पहले अपने राज्य का आधा हिस्सा खो बैठे हैं? कुछ अन्य लोगों ने दलील दी है कि कश्मीर सीमावर्ती प्रदेश है, जिसका कुछ इतिहास है, जो इसे अनूठा बनाता है। लेकिन, फिर पंजाब जैसे अन्य सीमावर्ती प्रदेश हैं, जहां के लोगों ने अपने घर व परिजनों को बंटवारे के वक्त खोया। बाद में पंजाब का हरियाणा व हिमाचल में और विभाजन हुआ। क्या पंजाब या आंध्र के लोगों से इनके बारे में पूछा गया था?

कुछ उदारवादी मानते हैं कि जनमत संग्रह ही सहमति प्राप्त करने का एकमात्र असली तरीका है और कश्मीरियों को आत्म-निर्णय के सिद्धांत के आधार पर अलग होने का विकल्प दिया जाना चाहिए। यदि यह सही है तो क्या हम आंध्र में भी जनमत संग्रह कराने के लिए नैतिक रूप से बंधे नहीं हैं? यदि इस सोच को पीछे 1947 में ले जाए तो क्या हमें यह सिद्धांत 565 रियासतों के नागरिकों पर लागू नहीं करना था, जो अंग्रेजों की विदाई के वक्त भारत के 40 फीसदी भू-भाग पर रहते थे। कश्मीर तो इनमें से केवल एक था। डॉ. आम्बेडकर को लगता था कि भारत 3000 जातियों का राष्ट्र है तो क्या 3000 जनमत-संग्रह कराए जाने चाहिए थे? क्या ब्रिटिश राज में रह रहे भारतीयों को भी विकल्प नहीं दिया जाना चाहिए था कि वे भारतीयों से शासित होना चाहते हैं या अंग्रेजों से? यदि पर्याप्त संख्या में भारतीय चाहते कि ब्रिटिश शासक बने रहे तो शायद कभी भारत नाम का स्वतंत्र देश ही नहीं होता। जनमत संग्रह असमंजस की स्थिति भी बना सकता है, जैसा कि ब्रेक्ज़िट के बाद ब्रिटेन को अहसास हो रहा है। समान वंश परम्परा, भाषा और साझा संस्कृति के आधार पर नेशन-स्टेट (राष्ट्र-सत्ता) के निर्माण का विचार हाल का आविष्कार है। यह विचार मध्य यूरोप में चले 30 साल के विनाशकारी संघर्षों को खत्म करने वाली वेस्टफालिया (1648) की संधि में जन्मा था। 1815 में नेपोलियन के पतन के बाद भी यूरोप ज्यादातर साम्राज्यों व रियासतों में बंटा था। उसके बाद यूरोप के लोग सोच-विचार कर राष्ट्र-सत्ता के गठन में लगे। चूंकि प्राकृतिक एकता तो आमतौर मौजूद नहीं थी तो उनके नेताओं ने इसका 'निर्माण' किया और स्कूली पाठ्यक्रमों में इतिहास के पौराणिक संस्करणों के जरिये लोगों के गले उतार दिया। आज हिन्दू राष्ट्रवादी भी वही करने की कोशिश कर रहे हैं। अप्रिय राष्ट्रवाद के कारण हुए निरर्थक प्रथम विश्वयुद्ध के खौंफ का यह नतीजा रहा कि दुनिया 1920 के दशक में आत्म-निर्णय के नैतिक विचार की आकर्षित हुई। भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं को भी अहसास हुआ कि स्व-शासन का उनका दावा यह सिद्ध करने पर निर्भर है कि उनका देश एक राष्ट्र है। इस तरह महात्मा गांधी हमारे मुख्य 'मिथमैकर' या आख्यान-निर्माता बन गए।

प्रश्न उठ रहे हैं : राष्ट्र-सत्ता क्या है? इस विचार के आविष्कारक कहेंगे कि यह एक भावना है, 'फेलो फिलिंग', साथ रहने से उपजी सह-भावना, जो भारतीयों को एकजुट करती है। समस्या यह है कि यह उनके प्रति विद्वेष में बदलती है, जो भिन्न हैं। हो सकता है कि कश्मीरी मुस्लिम विरोध करें कि उनमें हिन्दुओं के लिए 'फेलो फिलिंग' नहीं है और पाकिस्तान के निर्माण के पीछे भी यही दलील थी। ज्यादातर राष्ट्रों में कई धर्म हैं, यहां तक कि मुस्लिम भी कई देशों में अल्पसंख्यकों के रूप में रहते हैं। इस तरह धर्म राष्ट्रीयता के लिए ठोस आधार नहीं है।

'फेलो फिलिंग' का एक और स्रोत जश्न और तकलीफों की साझा यादें भी हो सकती हैं। ऐतिहासिक स्मृतियों के साथ समस्या यह है कि वे बांट भी सकती हैं। सोमनाथ मंदिर को लूटने वाला मोहम्मद गजनी हिन्दुओं की दृष्टि में खलनायक है और मुस्लिमों के लिए नायक। इसलिए यह मानक भी नाकाम है। राष्ट्र निर्माण के लिए इतिहास को भूल जाना प्रायः बेहतर होता है। चूंकि राष्ट्र-सत्ता की पहचान के सारे मानक नाकाम हो गए हैं तो हमें इस असुविधाजनक सत्य का सामना करना पड़ेगा कि राष्ट्र एक 'काल्पनिक समुदाय' है, जैसा कि आयरिश राजनीतिक विज्ञानी बेनेडिक्ट एंडरसन ने हमें सिखाया है। पहचान का इससे कोई संबंध नहीं है। सारे आधुनिक राष्ट्र-राज्य और क्षेत्रीय पहचानें कृत्रिम निर्मितियां हैं, जिसमें ज्यादातर नागरिक अजनबी हैं, जो कभी नहीं मिल पाएंगे। कोई जोड़ने वाला प्राकृतिक तत्व नहीं है जो भारत या किसी अन्य देश अथवा कश्मीर, बंगाल या आंध्र जैसे राज्यों को जोड़े। हिन्दू राष्ट्रवादियों और कश्मीरी पृथकतावादियों को यह समझने की जरूरत है। हिंदुत्व और कश्मीरियत दोनों काल्पनिक है। भारत का आविष्कार 26 जनवरी 1950 को इस आधार पर हुआ कि जो भी इसके भौगोलिक क्षेत्र में रहता है उसे अधिकतम समान स्वतंत्रता मिलेगी और कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं होगा।

कश्मीरियों का सफल व रोष रहित समावेश अंततः इस बात पर निर्भर होगा कि सामान्य कश्मीरी की निगाह में भारत कितना वांछनीय लगता है यानी वह कितना पसंद आता है। इस मामले में भारतीय राष्ट्र-राज्य का काम महत्वपूर्ण है। वह सुशासन से सुनिश्चतता कायम करें, यह पक्का करे कि हर कोई कानून के सामने समान है, लोगों को अपने शासक बदलने का विकल्प उपलब्ध कराए, शिक्षा व सेहत की बेहतरी के अवसर प्रदान करें और समृद्धि की ओर ले जाने वाली परिस्थितियां निर्मित करे।

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