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सुधारों के लिए जूझते मोदी
| August 14, 2015 - 00:00
स्वतंत्रता दिवस का अवसर थोड़ा रुकने, रोजमर्रा की घटनाओं पर सोच का दायरा बढ़ाने और पिछले 68 साल के दौरान अपने देश की यात्रा पर नजर डालने का बढिय़ा वक्त होता है। आजाद देश के रूप में अपने भ्रमपूर्ण इतिहास पर जब मैं नजर डालता हूं तो कुहासे में मील के तीन पत्थरों को किसी तरह देख पाता हूं। अगस्त 1947 में हमने अपनी राजनीतिक लड़ाई जीती। जुलाई 1991 में आर्थिक आजादी हासिल की और मई 2014 में हमने सम्मान हासिल किया। मैं आजादी के बाद के आदर्शवादी दिनों में पला-बढ़ा जब हम आधुनिक, न्यायसंगत भारत के जवाहरलाल नेहरू के सपने में यकीन करते थे। लेकिन जैसे-जैसे साल बीतते गए, हमने पाया कि नेहरू की 'मिश्रित अर्थव्यवस्था अंधी गली तक पहुंच रही थी। समाजवाद की जगह हम राज्य नियंत्रणवाद तक पहुंच गए जिसे हमने घृणापूर्वक 'लाइसेंस राज कहा। अंतत: 1991 के सुधारों ने उस वेदना को खत्म किया। कोई ठीक ढंग से नहीं जानता कि एक अरब तीस करोड़ की जनता का अपना हंगामेदार भ्रमित लोकतंत्र कैसे दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया। आखिरकार, साठ देशों ने वैसे ही सुधार लागू किए जैसे भारत ने।
मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पूछना चाहूंगा कि उन्हें क्यों चुना गया। अमेरिकी विदेश विभाग के पूर्व अधिकारी डॉ. वाल्टर एंडरसन द्वारा मोदी के भाषणों के कंप्यूटर विश्लेषण के अनुसार, मोदी ने एक बार हिंदुत्व का उल्लेख किया तो पांच सौ बार विकास का। उन्हें चुनने वाले महत्वाकांक्षी युवा के लिए विकास प्रतियोगी बाजार में अवसर का कोड वर्ड था। मोदी ने ऐसा समर्थ वातावरण बनाने का आश्वासन दिया जो दमघोंटू लालफीताशाही और बदनाम 'इंस्पेक्टर राज के बिना व्यवसाय करने का लोगों को मौका देगा। अब तक वे इस वादे को निभाने में विफल रहे हैं। खास तौर से पूर्व प्रभावी कराधान ने व्यापार को सरल बनाने के उनके वादे को नीचा दिखाया है।
प्रधानमंत्री को मेरी सलाह है कि वह स्वतंत्रता दिवस पर किसी नए कार्यक्रम या योजना की घोषणा न करें। इसकी जगह मई, 2014 से घोषित योजनाओं पर अपना विस्तृत रिपोर्ट कार्ड पेश करें। देश खास तौर से 'व्यवसाय करने में सरलता पर प्रगति की प्रतीक्षा कर रहा है। विश्व बैंक की रिपोर्ट जल्द ही आएगी और कई लोगों को आशंका है कि यह अच्छी नहीं होगी। उन आशंकाओं को दूर करने की शुरुआत करना दूरदर्शिता होगी। हमने मोदी को चुना, इसका एक प्रमुख कारण गुजरात में कार्यान्वयन का उनका उत्कृष्ट ट्रैक रिकॉर्ड था। महान नेता सहज बोध से समझ जाते हैं कि काम पूरा करना ही सब कुछ है। इसलिए वे योजना बनाने के दायरे में अपने आपको नहीं रखते, बल्कि काम पूरा करने के महत्वपूर्ण पहलू में जाते हैं। वे दखलंदाजी नहीं करते, लेकिन अपने अधीनस्थों को प्रेरित करते हैं और उनके अवरोधों को हटाते हैं।
व्यवसाय की दृष्टि से भारत को कम अवरोधों वाला बनाने के लिए मोदी को उसी तरह बाजार को पूरी ताकत से 'बेचने की जरूरत है जिस तरह ब्रिटेन में मारग्रेट थैचर और चीन में देंग शियाओ पिंग ने किया। बहुत सारे भारतीय अब भी मानते हैं कि बाजार 'धनी को और धनी तथा गरीब को और गरीब बनाता है और इससे भ्रष्टाचार और क्रोनी कैपिटलिज्म को बल मिलता है। 'बाजार समर्थक और 'व्यापार समर्थक के बीच अंतर बताने के लिए मन की बात आदर्श मंच है। बाजार समर्थक होना प्रतियोगिता में यकीन करना है जो कीमत को नीचे रखने, उत्पादों की गुणवत्ता बढ़ाने में मदद करता है और ऐसे 'नियम आधारित पूंजीवाद की ओर ले जाता है जो सबको फायदा पहुंचाता है। दूसरी तरफ 'व्यापार समर्थक होने का मतलब आर्थिक फैसलों पर अधिकार बनाए रखने की राजनीतिज्ञों और अधिकारियों को अनुमति देना है और यह 'क्रोनी कैपिटलिज्म की ओर ले जाता है। दूसरा अधूरा एजेंडा है जनता को संविधान, खास तौर से कानून के शासन के बारे में जागरूक करना। कानून का शासन नैतिक सर्वसम्मति पर आधारित है जो 'तहे दिल से रोजाना प्रकट की जाती है। लोग इसलिए कानून का पालन नहीं करते कि उन्हें दंड का डर रहता है, बल्कि इसलिए करते हैं कि वे सोचते हैं कि यह उचित और न्यायसंगत है और यह आदत और स्वनियंत्रण का तरीका बन गया है। दुर्भाग्यवश आजाद भारत के नेता संविधान के उदार विचारों को फैलाने में विफल रहे हैं।
शासन में सुधार पुनर्जीवित भारतीय नैतिक मर्म से निकलना चाहिए। स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत में मोहनदास करमचंद गांधी ने पाया कि संवैधानिक नैतिकता की पश्चिमी उदार भाषा का जनता के साथ तादात्म्य नहीं बैठता, लेकिन धर्म की नैतिक भाषा यह काम कर देती है। उन्होंने साधारण धर्म के वैश्विक नीतिशास्त्र को पुनर्जीवित किया। यह बौद्ध सम्राट अशोक से भिन्न तरीका था जिन्होंने धर्म पर आधारित नए स्तूपों का निर्माण किया। पूर्व आधुनिक भारत में धर्म का अभिप्राय नैतिक मर्म को थोपना और जनता के जीवन में सामंजस्य बिठाना, अनिश्चितता को कम करना और आत्मनियंत्रण था। इसने राजधर्म के जरिये सत्ता की शक्ति को नियंत्रित किया। इसी वजह से हमारे संविधान के निर्माताओं ने अपने भाषणों में धर्म की बात कही और यहां तक कि नए राष्ट्र के झंडे में धर्म चक्र-अशोक चक्र को स्थान दिया। गांधीजी भले ही अस्पृश्यता खत्म नहीं कर पाए, लेकिन उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को अपने जीवन में आत्मसात किया। उसी तरह हमें विस्तृत नागरिकता योजना के हिस्से के तौर पर युवाओं के बीच संविधान को नैतिक आईने के विचारों के तौर पर तब तक प्रचारित करना चाहिए जब तक यह उनके 'दिल की गहराइयों में न उतर जाए। भारत का उदय सिर्फ हमारे लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए शुभ समाचार है। जब पश्चिम पूंजीवादी व्यवस्था से संतप्त है, ऐसे वक्त में राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता पर आधारित एक देश पूर्व में उग रहा है। यह फिर साबित हो रहा है कि खुला समाज, मुक्त व्यापार और वैश्विक अर्थव्यवस्था में बहुआयामी संबंध दीर्घकामी समृद्धि और राष्ट्रीय सफलता के मार्ग हैं।
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