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हम भारतीय पाखंडी कैसे हो गए?
| August 19, 2015 - 00:00
दूसरों से मुझे बचाना तो राज्य का कर्तव्य है, लेकिन मुझे खुद से ही बचाना इसके दायरे में नहीं आता। हमारे संविधान में यही धारणा निहित है, जो जिम्मेदार नागरिक के रूप में मुझ पर भरोसा करता है और राज्य से हस्तक्षेप के बिना मुझे अपनी जिंदगी शांतिपूर्वक जीने की आजादी देता है। इसीलिए पोर्न साइट ब्लॉक करने का सरकार का आदेश गलत था। उसे श्रेय देना होगा कि उसने जल्दी ही अपनी गलती पहचान ली और रुख बदल लिया- इसने वयस्कों की साइट से प्रतिबंध हटा लिया जबकि चाइल्ड पोर्न साइट पर पाबंदी जारी रखी, जो बिल्कुल उचित है। प्रतिबंध के बचाव में केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भारतीय संस्कृति और परंपरा की दुहाई दी थी। यह भी एक गलती थी।
भारत का सांस्कृतिक इतिहास इस मायने में अनूठा है कि इसने यौनेच्छा को मानव का अत्यंत सकारात्मक गुण माना। यदि पश्चिम की यहूदी-ईसाई परंपरा में सृष्टि रचना प्रकाश के साथ शुरू होती है (जब ईश्वर ने कहा, ‘प्रकाश हो जाए और प्रकाश हो गया)।’ भारत में सृष्टि की शुरुआत काम यानी इच्छा से शुरू होती है। ‘काम उस एक के मन में इच्छा का बीज है, जिसने ब्रह्मांड को जन्म दिया (ऋग वेद 10.129)।’ प्राचीन भारतीय भी यह मानते थे कि काम ही सृष्टि, उत्पत्ति और सच कहें तो हर क्रिया का उद्गम है। उन्होंने इसे त्रिवर्ग, यानी मानव जीवन के तीन उद्देश्यों में शामिल कर ऊंचा स्थान दिया। उन्होंने इसके नाम पर देवता की कल्पना की और इसे लेकर मोहक पौराणिक कथा बुनी। काम को लेकर यह सकारात्मकता भारतीय इतिहास के शास्त्रीय दौर में चरम पर पहुंची। संस्कृति प्रेम काव्य कामसूत्र और गुप्त हर्षवर्द्धन के साम्राज्य के दरबारी जीवन में शृंगार रस की संस्कृति में इसकी परिणति हुई। इसी के बाद खजुराहो और कोणार्क के शृंगार आधारित शिल्प गढ़े गए।
एक दौर के आशावादी और खुले दिमाग वाले भारतीय आज के पाखंडियों में कैसे बदल गए? हमारा झुकाव मुस्लिम ब्रिटिश हमलावरों को दोष देने का रहा है (और कुछ तो उनका संबंध रहा है खासतौर पर ब्रिटिश राज के नकचढ़े विक्टोरियाइयों का), लेकिन हिंदू भी काम को लेकर निराशावादी रहे। काम पर तपस्वियों संन्यासियों ने हमला किया, जिन्हें आध्यात्मिक प्रगति को कुंठित करने की इसकी क्षमता चिंतित करती थी। उपनिषद, बुद्ध और कई प्रकार के संन्यासियों ने इसकी भर्त्सना की और शिव ने तो प्रेम के देवता को ही भस्म कर दिया था। आशावादी और निराशावादियों में फंसा साधारण व्यक्ति भ्रम में पड़ गया। जहां कामेच्छा आनंद का स्रोत थी वहीं, उसने देखा कि यह आसानी से बेकाबू हो सकती है। धम्म की रचनाएं उसकी मदद के लिए आगे आईं और उसे एक राह दिखाई। इसने काम के सकारात्मक गुणों को स्वीकार किया, लेकिन हिदायत दी कि यह विवाह के भीतर संतानोत्पत्ति तक सीमित रहनी चाहिए। इस तरह एकल विवाह का नियम बन गया, लेकिन मानव सिर्फ सहजवृत्ति से ही संचालित नहीं होता। कामेच्छा हमारी इंद्रियों से गुजरकर कल्पना में प्रवेश करती है और फैंटेसी निर्मित करती है। इससे शारीरिक प्रेम का उदय हुआ, जो संस्कृत और प्राकृत के प्रेम काव्य में शृंगार रस के रूप में व्यक्त हुआ और बाद में भक्ति में रूमानी प्रेम के रूप में सामने आया, जिसकी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति जयदेव के ‘गीतगोविंद’ में हुई।
काम को लेकर शर्मिंदगी महसूस करने या इसके निराशावादी पक्ष पर ही ध्यान केंद्रित करने या विक्टोरियाइयों की तरह घोर पाखंडी बनने की बजाय रविशंकर प्रसाद और संघ परिवार को काम की हमारी समृद्ध परंपरा की सराहना करनी चाहिए। मुझे संघ परिवार की औपनिवेशिक काल के बाद जन्मी असुरक्षा की भावना पर खेद होता है, जिसके कारण वे इस मामले में 19वीं सदी के अंग्रेजों से भी ज्यादा अंग्रेज बन रहे हैं। धर्म के प्रति भी इसका रवैया समृद्धि, अानंदपूर्ण, बहुलतावादी हिंदुत्व को शुष्क, रसहीन, कठोर और ईसाई या इस्लाम धर्म की तरह एकेश्वरवादी बनाने का रहा है। जब पोर्नोग्राफी की बात आती है, हम सबको तीन जायज चिंताएं हैं- यौन हिंसा, इसकी लत लगना और बच्चों को इससे बचाना। जहां तक पहली चिंता की बात है यौन अपराधों और पोर्नोग्राफी में कोई संबंध नहीं पाया गया है। दुनिया में कई अध्ययन किए गए हैं और इसमें कोई ऐसा सबूत नहीं मिला है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा तो उन देशों में बढ़ी जहां पोर्न कानून उदार बना दिए गए और पोर्नोग्राफी पर सेंसरशिप लागू करने पर ऐसे अपराध कम हुए। दूसरी चिंता है लत लगने की तो शराब की भी लत लग जाती है। दशकों के अनुभव से हमने सीखा है कि अल्कोहल पर पाबंदी काम नहीं करती। जब-जब शराबबंदी लगाई गई यह भूमिगत होकर वेश्यावृत्ति जैसे आपराधिक हाथों में चली गई।
जहां तक बच्चों के संरक्षण की बात है, इसकी कुंजी वयस्कों की स्वतंत्रता पर रोक लगाने में नहीं है बल्कि पालकों के स्तर पर सतर्कता बरतने की है। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एचएल दत्तू ने पिछले माह यह कहकर इंटरनेट साइट्स को सेंसर करने से इनकार कर दिया कि, ‘कोई अदालत में आकर कहेगा कि देखो, मैं वयस्क हूं और आप मुझे मेरे कमरे की चार दीवारों के भीतर इसे देखने से कैसे रोक सकते हैं?’ उन्होंने कहा कि इससे संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता जीवन के मौलिक आधार का अभिन्न अंग है। पोर्नोग्राफी के नकारात्मक पक्ष से निपटने का सबसे अच्छा समाधान प्रशिक्षित शिक्षकों पालकों द्वारा सेक्स शिक्षा देने में है। जब आप किसी विषय पर खुले में विचार करते हैं तो इससे स्वस्थ व्यक्ति का विकास होता है।
भाजपा के सत्तारूढ़ राजनेताओं ने इस मुद्दे पर बहुत गड़बड़ कर दी। गर्मी में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई की थी। कमलेश वाधवानी ने विभिन्न कारणों से पोर्न साइट्स पर पाबंदी लगाने की मांग की थी। इसमें एक वजह पोर्न यूज़र को उसकी घटिया इच्छाओं से बचाने की अनिवार्यता भी थी। कोर्ट ने समझदारीपूर्वक पाबंदी लगाने से इनकार कर दिया। उसने पाया कि भारत के वयस्क यह निर्णय लेने के काबिल हैं कि उन्हें क्या देखना है, क्या नहीं। सभ्य होने का अर्थ है कि आप कह सकें : मैं बीफ तो नहीं खाता, लेकिन आप के खाने पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं पोर्न तो नहीं देखता, लेकिन आपके देखने पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है। एक स्वतंत्र, सभ्य देश में हम उन लोगों का सम्मान करना सीखते हैं, जो हमसे अलग राय रखते हैं। सेंसर करने या प्रतिबंध लगाने की बजाय आइए, अपनी खुली, उल्लास से भरी भारतीय परंपरा से सीखने की कोशिश करें, जिसने सिर्फ काम को सभ्यतागत जगह दी बल्कि प्रेम यौनेच्छा पर महान काव्य कला को प्रोत्साहित किया। आम नागरिक पर भरोसा दिखाकर हम संविधान की भावना पर भी खरे उतरेंगे।
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