- Biography
- Books
- Commentary
- Newspapers
- Asian Age
- Bloomberg Quint
- Business Line
- Business Standard
- Dainik Bhaskar (Hindi)
- Divya Gujarati
- Dainik Jagran (Hindi)
- Divya Marathi
- Divya Bhaskar
- Economic Times
- Eenadu (Telugu)
- Financial Times
- Hindustan Times
- livemint
- Lokmat, Marathi
- New York Times
- Prajavani (Kannada)
- Tamil Hindu
- The Hindu
- The Indian EXPRESS
- Times of India
- Tribune
- Wall Street Journal
- Essays
- Interviews
- Magazines
- Essays
- Scroll.in
- Newspapers
- Speaking
- Videos
- Reviews
- Contact
कोरोना के बाद की दुनिया में भारत को ज्यादा इनोवेटिव स्कूलों की जरूरत होगी, यह तभी होगा जब हम निजी स्कूलों को ज्यादा आजादी देंगे
| July 10, 2020 - 22:45
विदुर महाभारत में कहते हैं, ‘उनसे सावधान रहो, जो कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं।’ वे राजा धृतराष्ट्र को ढोंगियों से बचने की सलाह दे रहे थे लेकिन वे भारतीय शिक्षा संस्थानों के बारे में भी यह कह सकते थे, जिनका ढोंग झूठे मिथकों में निहित है। इस ढोंग को कोरोना के बाद की दुनिया में चुनौती मिलेगी, जहां केवल सक्षम और कुछ नया करने वाले ही बचेंगे। दुर्भाग्य से जल्द आने वाली नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने इस हकीकत का सामना नहीं किया है।
हमारा एक मिथक यह है कि जनता के हित के लिए सरकार ही शिक्षा दे। इसलिए, निजी स्कूलों को दो आधारों पर ही बर्दाश्त करना चाहिए: 1) एक ढोंगपूर्ण झूठ जो उन्हें फायदा कमाने से रोकता है; (2) निजी स्कूल सही ढंग से चलें, इसलिए उन्हें लाइसेंस राज की जंजीरों में जकड़े रहना चाहिए। यह मिथक इस गलत धारणा पर आधारित है कि आधुनिक देशों में शिक्षा सरकार ही देती है। जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और स्कैंडिनेवियाई देशों में हुए शिक्षा सुधारों में निजी संस्थानों का बढ़ावा दिया है।
इस मिथक के लिए भारत ने सरकारी स्कूलों पर भारी निवेश किया है। लेकिन नतीजा दयनीय रहा है। भारत के बच्चे अंतरराष्ट्रीय पीआईएसए टेस्ट में 74 देशों में 73वें पायदान पर रहे। पांचवी कक्षा के आधे से ज्यादा बच्चे दूसरी कक्षा की किताब के जोड़-घटाने के सवाल नहीं हल कर सकते। कुछ राज्यों में 10% से भी कम शिक्षक टीचर एलिजिबिलिटी टेस्ट पास हैं। उप्र और बिहार में चार में से तीन शिक्षक प्रतिशत वाले सवाल हल नहीं कर सकते। एक औसत सरकारी स्कूल में चार में से एक शिक्षक गैरकानूनी ढंग से अनुपस्थित रहता है।
इस दु:खद परिस्थिति के कारण सरकार के डीआईएसई डेटा के मुताबिक 2010-11 और 2017-18 के बीच 2.4 करोड़ बच्चे सरकारी स्कूल छोड़ निजी स्कूलों में चले गए। आज भारत के 47% (करीब 12 करोड़) बच्चे निजी स्कूलों में है। यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा प्राइवेट स्कूलिंग नेटवर्क है। इस निजी सिस्टम में 70% माता-पिता रु.1000 प्रतिमाह से कम फीस देते हैं और 45% रु.500 से भी कम। इससे यह मिथक टूट जाता है कि निजी स्कूल अमीरों के लिए हैं।
जिस तेजी से सरकारी स्कूल खाली हो रहे हैं, 1,30,000 निजी स्कूलों की जरूरत है। अच्छे निजी स्कूलों की कमी के पीछे तीन कारण हैं। पहला है लाइसेंस राज। एक ईमानदार व्यक्ति के लिए स्कूल खोलना मुश्किल है। अलग-अलग राज्यों में 35 से 125 अनुमतियां रिश्वत देकर लेनी पड़ती हैं। सबसे ज्यादा रिश्वत अनिवार्यता प्रमाणपत्र (यह साबित करने के लिए कि स्कूल की जरूरत है) और मान्यता के लिए देनी पड़ती है। प्रक्रिया में 5 साल तक लग सकते हैँ।
दूसरा कारण वित्तीय है। स्कूल चलाना लाभप्रद नहीं रहा। समस्या शिक्षा का अधिकार अधिनियम से शुरू हुई, जब सरकार ने निजी स्कूलों में 25% सीटें गरीबों के लिए आरक्षित कर दीं। यह अच्छा विचार था लेकिन बुरी तरह लागू हुआ। चूंकि राज्य सरकारें निजी स्कूलों को उचित मुआवजा नहीं देतीं, इसलिए बाकी 75% छात्रों की फीस बढ़ जाती है। इसका माता-पिता विरोध करते हैं और कई राज्य फीस नियंत्रण लागू कर देती हैं, जिससे स्कूलों की वित्तीय सेहत बिगड़ती है। फिर स्कूल कटौती करते हैं और गुणवत्ता कम हो जाती है। कुछ स्कूल तो बंद ही हो गए। महामारी के बाद और होंगे।
एक ईमानदार व्यक्ति के स्कूल न खोलने के पीछे तीसरा कारण है राष्ट्रीय ढोंग। कानून निजी स्कूल को फायदा कमाने से रोकता है, लेकिन ज्यादातर कमाते हैं। शीर्ष 10 अर्थव्यवस्थाओं में केवल भारत ही लाभ के लिए शिक्षा देने की अनुमति नहीं देता। इस दिखावे को खत्म होना चाहिए। इसे ‘गैर-लाभकारी’ से ‘लाभकारी’ क्षेत्र बनाकर क्रांति ला सकते हैं। शिक्षा में निवेश आएगा जिससे विकल्प और गुणवत्ता में सुधरेगी। कालेधन पर रोक लगेगी। माता-पिता जैसे पानी, बिजली या इंटरनेट के लिए पैसे देते हैं, बेहतर शिक्षा के लिए भी देंगे।
ईमानदार निजी स्कूली शिक्षा के लिए लाइसेंस राज भी हटाना होगा। स्कूलों को आधुनिक देशों जैसी स्वायत्तता देनी होगी। स्कूल कोरोना के बाद तकनीक में तभी निवेश करेंगे जब वेतन, फीस तथा पाठ्यक्रम से जुड़ी आजादी होगी। निजी स्कूल सेक्टर, सरकारी स्कूलों की एक-तिहाई लागत में बेहतर नतीजे दे सकता है। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का वेतन बहुत बढ़ा है। जबकि समाज के लिए एक निजी स्कूल की लागत कम आएगी। उप्र में 2017-18 में जूनियर शिक्षक का शुरुआती वेतन रु.48,918 प्रतिमाह था, जो उप्र की प्रति व्यक्ति आय से 11 गुना था।
नई शिक्षा नीति पुरानी की ही तरह असफल रह सकती है। भारतीय शिक्षा में सुधार के दो उद्देश्य होने चाहिए: 1) सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता सुधारना; 2) निजी स्कूलों को स्वायत्तता देना। सरकार को अपने दो कार्य अलग-अलग कर देने चाहिए: 1) शिक्षा नियमन; 2) सरकारी स्कूल चलाना। कोरोना के बाद की दुनिया में भारत को ज्यादा इनोवेटिव स्कूलों की जरूरत होगी। यह तभी होगा जब हम निजी स्कूलों को ज्यादा आजादी देंगे। ये कदम ढोंग को खत्म करने में मदद करेंगे और हमें ज्यादा ईमानदार बनाएंगे।
Source: https://www.bhaskar.com/db-original/columnist/news/chinese-initiative-is...
Post new comment